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At the Feet of The Mother

SAVITRI Book Eight. Canto Three (Eng-Hindi)

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BOOK EIGHT. THE BOOK OF DEATH

Canto Three.((( This Canto was compiled by the poet from an early version of Savitri in which it had been called Canto Three. It was the third Canto of that poem, not the third canto of any particular Book. When, after being rewritten at places, it was included in the present version, its number remained unchanged.))) Death in the Forest

 

Now it was here in this great golden dawn
By her still sleeping husband lain she gazed
Into her past as one about to die
Looks back upon the sunlit fields of life
Where he too ran and sported with the rest,
Lifting his head above the huge dark stream
Into whose depths he must for ever plunge.

अब इस महान् स्वर्णिम उषाकाल में यह नियति आ पहुंची।
अभी तक अपने सोये पति के समीप लेटी सावित्री ने
अपने अतीत को काल-द्वार पर खड़ी सत्ता सम अवलोका,
उसने मुड़कर अतीत-जीवन की धूप में खिले क्षेत्रों को देखा
जहां वह भी सबके साथ खेला और दौड़ा था,
इस नैराश्य की काली धारा से उसने निज शीश ऊपर उठाया
जिसकी घोर अतलताओं में उसे सदा के लिए डूब जाना था।

All she had been and done she lived again.

कभी जो जीवन उसका था एक बार फिर उसको जी लिया।

The whole year in a swift and eddying race
Of memories swept through her and fled away
Into the irrecoverable past.

सम्पूर्ण वर्ष एक तीव्र चक्रवाती स्मृति-धारा समान
दौड़ता एवं उसे बहाता डुबोता भागता हुआ
एक सुदूर अगम्य अपरिवर्तनीय भूतकाल में समा गया।

Then silently she rose and, service done,
Bowed down to the great goddess simply carved
By Satyavan upon a forest stone.

तब वह मौन धीरे से उठी और, सेवाकर्म सम्पन्न किया,
एवं उस महती देवी को प्रणाम किया
जिसकी प्रतिमा सत्यवान् ने एक वन्य शिला पर उकेर दी थी।

What prayer she breathed her soul and Durga knew.

उसके प्राण से क्या प्रार्थना उठी यह उसकी आत्मा और दुर्गादेवी ही जान पायीं।

Perhaps she felt in the dim forest huge
The infinite Mother watching over her child,
Perhaps the shrouded Voice spoke some still word.

सम्भव है उस धूमिल विशाल वन में उसने अनुभूति पायी
निज बालिका के ऊपर शाश्वत जगजननी की कृपा दृष्टि की,
हो सकता है वह गोपित दिव्य वाणी मूक शब्द में कुछ बोली।

At last she came to the pale mother queen.

अन्त में सावित्री निस्तेज रानी माता के समीप आयी।

She spoke but with guarded lips and tranquil face
Lest some stray word or some betraying look
Should let pass into the mother’s unknowing breast,
Slaying all happiness and need to live,
A dire foreknowledge of the grief to come.

वह सावधानी बरतती, सयंत वाणी और शान्त मुख से बोली,
जिससे कोई असंयत वचन या चितवन छल न कर जाये
और रानी माता की अबोध छाती में शूल सम न विंध जाये,
जो उसके सकल सुख और जीवन की इच्छा का हनन कर
आने वाले भीषण दुःख सन्ताप का ज्ञान माता को दे जाये।

Only the needed utterance passage found:
All else she pressed back into her anguished heart
And forced upon her speech an outward peace:[561]
“One year that I have lived with Satyavan
Here on the emerald edge of the vast woods,
In the iron ring of the enormous peaks
Under the blue rifts of the forest sky,
I have not gone into the silences
Of this great woodland that enringed my thoughts
With mystery, nor in its green miracles
Wandered, but this small clearing was my world.
Now has a strong desire seized all my heart
To go with Satyavan holding his hand
Into the life that he has loved and touch
Herbs he has trod and know the forest flowers
And hear at ease the birds and the scurrying life
That starts and ceases, rich far rustle of boughs
And all the mystic whispering of the woods.

केवल आवश्यक वाक्य ही वह मुख से बोली:
शेष सब उसने निज व्यथित अन्तर में गोपित कर दबा लिया
और अपनी वाणी पर एक बाहरी शान्ति को आरोपित कर दिया।
‘‘एक वर्ष बीत गया है मुझे सत्यवान् के साथ यहां
इस विशाल वन की हरित सीमा पर रहते हुए,
इन विशाल पर्वत-शिखरों के इस लौह-घेरे में
इस वन के व्योमाकाश की नील फाटनों तले,
पर मैंने अभी तक इस वनीय प्रान्त की नीरवताओं में
भ्रमण नहीं किया है जो मेरे विचारों को निज रहस्यों से
घेरे रहती हैं, और इसके हरित चमत्कारों को नहीं देखा है,
केवल यह छोटा-सा परिवार ही मेरा सम्पूर्ण जगत् बन रह गया है
किन्तु आज मेरे अन्तर को एक तीव्र इच्छा ने जकड़ लिया है,
आज मैं सत्यवान् का हाथ थाम उसके साथ जाऊंगी
और उसके प्रिय वन्य जीवन को समीप से देख स्पर्श करूंगी
उन जड़ी-बूटियों को जिन पर वह चलता है और वन-पुष्पों को जानूंगी
और शान्त चित्त हो पक्षियों और तेजी से ओझल हो जाते जीवन की ध्वनियां सुनूंगी
सुदूर शाखाओं पर गुंजित एवं क्षणिक मिटते बनते जीवन से पहचान करूंगी
और पंखों की फड़फड़ाहट और वनों की रहस्यमयता का आनन्द उठाऊंगी।

Release me now and let my heart have rest.”

मां आज मुझे जाने दे, और मेरे हृदय की व्याकुलता को शान्ति से भर दे।’’

She answered: “Do as thy wise mind desires,
O calm child-sovereign with the eyes that rule.

माता ने उत्तर दिया: ‘‘कर वही जो तेरे विज्ञ मन की कामना है, हे बालिके,
मेरी रानी, ओ शान्त पुत्री तू तो निज नेत्रों की प्रभुता से शासन करती है।

I hold thee for a strong goddess who has come
Pitying our barren days; so dost thou serve
Even as a slave might, yet art thou beyond
All that thou doest, all our minds conceive,
Like the strong sun that serves earth from above.”

मैं तो तुझे सामर्थ्यशालिनी देवी मानती हूं जो आ गयी है
हमारे जीवन में दया करके, इन उजाड़ दिवसों में बसने;
तेरे जैसी सेवा तो एक दास भी नहीं कर सकता है, फिर भी तू सबसे ऊपर है
हमारी मानसिक धारणाओं एवं समस्त कार्य से परे है,
उस तेजस्वी सूर्य सम है जो दूर ऊर्ध्व में रह इस धरती की सेवा करता है।’’

Then the doomed husband and the woman who knew
Went with linked hands into that solemn world
Where beauty and grandeur and unspoken dream,
Where Nature’s mystic silence could be felt
Communing with the secrecy of God.

तब वह सर्वज्ञा नारी निज हतभागे पति के संग
एक दूसरे का हाथ थामे वन के शान्त संसार की ओर चल दिये,
जहां पर शोभा एवं सुषमा का साम्राज्य एवं अनकहा सपना था,
जहां पर वन की प्रकृति के गुह्य मौन का अनुभव होता
जैसे कि वह परम पुरुष की रहस्यमयता से गुप्त वार्तालाप करती हो।

Beside her Satyavan walked full of joy,
Because she moved with him through his green haunts:
He showed her all the forest’s riches, flowers
Innumerable of every odour and hue
And soft thick clinging creepers red and green
And strange rich-plumaged birds, to every cry
That haunted sweetly distant boughs, replied
With the shrill singer’s name more sweetly called.

उसके पार्श्व में सत्यवान् मुदित मन चल रहा था
क्योंकि आज सावित्री उसके हरित बसेरों पर साथ थी:
उसने उसे वन की समस्त सम्पदाएं दिखायीं, समझायीं,
अनेक विविध रंगी और सुगन्धित पुष्पों की जातियां,
कोमल घनी लताएं हरित एवं रक्तवर्णी वृक्षों से लिपटी लहरातीं
और विचित्र सुन्दर पंखों के पखेरू, जिनकी दूर शाखाओं से आती
प्रत्येक मीठी पुकार का वह निज मधुर वाणी में उत्तर देता,
एवं उस तीव्र स्वर के गायक का नाम सावित्री को बता देता।

He spoke of all the things he loved: they were[562]
His boyhood’s comrades and his playfellows,
Coevals and companions of his life
Here in this world whose every mood he knew:
Their thoughts which to the common mind are blank
He shared, to every wild emotion felt
An answer. Deeply she listened, but to hear
The voice that soon would cease from tender words
And treasure its sweet cadences beloved
For lonely memory when none by her walked
And the beloved voice could speak no more.

वह उन समस्त वस्तुओं के विषय में जो उसे अति प्रिय थीं, बोला:
वे उसके बचपन के सहचर और उसकी बाल लीलाओं के सखा,
उसके जीवन के साथी और समकालीन मित्र थे
इस वन्य जगत् के वह प्रत्येक मनोभाव से परिचित था:
उनके विचारों के प्रति सचेत था जिनसे साधारण मन कोरा रहता है
वह प्रत्येक वनीय भावना को अनुभव करता एवं उत्तर देता।
सावित्री ध्यानमग्न सुनती रही उसकी वाणी को
जो शीघ्र ही थम जायेगी, अन्तर में पीती रही उसके कोमल वचनों को,
और अन्तरकोष में सहेजती रही इसके प्रिय मधुर उतार-चढ़ाव को,
उन एकाकी स्मृति-घड़ियों के लिए जब उसके साथ कोई नहीं चलेगा
और यह प्राणप्रिय वाचा और नहीं बोल सकेगी।

But little dwelt her mind upon their sense;
Of death, not life she thought or life’s lone end.

किन्तु उसका मन शब्दों का अर्थ नहीं ग्रहण कर पा रहा था;
यह जीवन पर नहीं वरन् मृत्यु पर या जीवन के एकाकी अन्त पर केन्द्रित था।

Love in her bosom hurt with jagged edges
Of anguish moaned at every step with pain
Crying, “Now, now perhaps his voice will cease
For ever.” Even by some vague touch oppressed,
Sometimes her eyes looked round as if their orbs
Might see the dim and dreadful god’s approach.

उसका हृदय प्रेम-वेदना की तीक्ष्ण धार से छेदा जा रहा था
और यह प्रत्येक कदम पर पीड़ा से कराहता चीत्कार कर कहता,
‘‘अब, सम्भव है अगले क्षण उसकी बोली थम जाये सदा के लिए।’’
या फिर मानों किसी धूमिल स्पर्श को पा उत्पीड़ित हो उठती,
कभी-कभी उसके नेत्र गोल कोटरों से चहुं ओर ऐसे देखते
जैसे उसकी पुतलियों को भीषण देवता का आगमन दिखता हो।

But Satyavan had paused. He meant to finish
His labour here that happy, linked, uncaring
They two might wander free in the green deep
Primeval mystery of the forest’s heart.

किन्तु अब सत्यवान् ठहर गया। वह यहीं पर निज कार्य को
समाप्त करना चाहता था, जिससे प्रसन्न, एक साथ दोनों निश्चिन्त हो
मुक्त भाव से हरित वन में विचरण कर सकें,
इस जंगल के आदि रहस्यपूर्ण हृदय का एक संग संधान कर सकें।

Wordless but near she watched, no turn to lose
Of the bright face and body which she loved.

एक वृक्ष जो निज शान्त शीश स्वर्ग की ओर उठाये
हरा-भरा शोभा से पूर्ण था, आवाहन कर रहा था पवन का,
अपनी खुली शाखाओं के घेरे में प्रणय-निमन्त्रण देता,
सत्यवान् ने इसे चुन इसकी शाखा पर कुल्हाड़ी से आघात किया
जो भूरी, खुरदुरी और मजबूत वृक्ष के हरित परिधान में छिपी थी।
सावित्री मूक पास खड़ी थी उसे निरखती, अपने प्रियतम की
देह और उज्ज्वल मुख का वह एक भी घुमाव नहीं खोना चाहती थी।

Her life was now in seconds, not in hours,
And every moment she economised
Like a pale merchant leaned above his store,
The miser of his poor remaining gold.

उसके प्राण अब पलों में बसे थे, घण्टों में नहीं
और प्रत्येक क्षण को वह सावधानी से बचा रही थी,
एक शक्तिहीन व्यापारी सम अपने कोष की रक्षा में झुकी,
अपने अन्तिम बचे हुए स्वर्ण की सुरक्षा में व्यस्त थी।

But Satyavan wielded a joyous axe.

किन्तु सत्यवान् एक हर्षभरी उमंग से कुल्हाड़ी चला रहा था।

He sang high snatches of a sage’s chant
That pealed of conquered death and demons slain,
And sometimes paused to cry to her sweet speech
Of love and mockery tenderer than love:
She like a pantheress leaped upon his words
And carried them into her cavern heart.

किसी सन्त के पद वह उच्च स्वर में गा रहा था
जिसमें मृत्यु पर विजय और असुर का वध गूंज रहा था,
और कभी-कभी ठहर कर वह उसे प्रिय मधुर वाणी में पुकारता
या प्रेम से भी मीठी उपहासभरी छेड़खानी करता:
वह भी एक चीते सम उसके वचनों को झपट लेती
और उन्हें अपनी हृदय-कन्दरा में धर लेती।

But as he worked, his doom upon him came.

जब वह कार्यरत था उसका विनाश सिर पर आ खड़ा हो गया।

The violent and hungry hounds of pain [563]
Travelled through his body biting as they passed
Silently, and all his suffering breath besieged
Strove to rend life’s strong heart-cords and be free.

पीड़ा के हिंसक शिकारी मूक भूखे श्वान उस पर टूट पड़े
मौन ये उसकी देह को काटने दौड़ पड़े
और उसका श्वास यातना से अवरुद्ध छटपटाने लगा,
उसके प्राण को हृदय के दृढ़ सूत्रों से छिन्न-भिन्न कर मुक्त करने के लिए।

Then helped, as if a beast had left its prey,
A moment in a wave of rich relief
Reborn to strength and happy ease he stood
Rejoicing and resumed his confident toil
But with less seeing strokes. Now the great Woodsman
Hewed at him and his labour ceased: lifting
His arm he flung away the poignant axe
Far from him like an instrument of pain.

तभी उसे कुछ राहत मिली, जैसे एक पशु ने अपना शिकार छोड़ दिया हो,
क्षणभर के समृद्ध विश्राम की एक लहर में वह खड़ा हो गया
सुखद आराम और शक्ति में नवजीवन पा
प्रसन्न हो निज कर्म में विश्वास से भरा पुनः जुट गया
किन्तु अब वह उन घन-प्रहारों को पूरी तरह देख नहीं पा रहा था।
क्योंकि घोर लकड़हारा देव उसे काट रहा था वह और श्रम नहीं कर पाया:
अपनी भुजा उठा उसने तीक्ष्ण कुल्हाड़ी दूर फेंक दी
जैसे कि वही उसकी पीड़ा का कारण थी।

She came to him in silent anguish and clasped,
And he cried to her, “Savitri, a pang
Cleaves through my head and breast as if the axe
Were piercing it and not the living branch.

सावित्री मूक वेदना से भरी दौड़ उसके पास आयी और उसे बांहों में भर लिया,
और वह चीत्कार कर उठा, ‘‘सावित्री, एक पीड़ा
मेरे मस्तिष्क और हृदय को ऐसे छेद रही है
मानों यह कुल्हाड़ी उस जीवित शाखा को नहीं मुझे काट रही है।

Such agony rends me as the tree must feel
When it is sundered and must lose its life.

वैसी ही मर्मान्तक पीड़ा मुझे चीर रही है जैसी कि यह वृक्ष अनुभव करता है
जब यह काट दिया जाता है और इसे निज जीवन खोना पड़ता है।

Awhile let me lay my head upon thy lap
And guard me with thy hands from evil fate:
Perhaps because thou touchest, death may pass.”

तनिक घड़ी भर को मेरा सिर अपनी गोद में रख लो
और अपने हाथों से इस दुर्भाग्य से मेरी रक्षा करो:
हो सकता है, प्रिये, तुम्हारा स्पर्श पा, मृत्यु छोड़ दे और लौट जाये।’’

Then Savitri sat under branches wide,
Cool, green against the sun, not the hurt tree
Which his keen axe had cloven,—that she shunned;
But leaned beneath a fortunate kingly trunk
She guarded him in her bosom and strove to soothe
His anguished brow and body with her hands.

तब सावित्री मोटी शाखाओं तले छांह में बैठ गयी,
सूर्य की प्रखरता से परे शीतल, हरियाली में, किन्तु उस कटे वृक्ष की नहीं
जिसे उसकी प्रखर कुल्हाड़ी ने काटा था, उससे वह दूर रही;
किन्तु एक भाग्यशाली विशाल तने का सहारा ले बैठ गयी,
वह उसे निज वक्ष से सुरक्षित चिपकाये रही और प्रयास करने लगी
निज करों से उसके मस्तक और पीड़ित देह को सहला सन्ताप दूर करने का।

All grief and fear were dead within her now
And a great calm had fallen. The wish to lessen
His suffering, the impulse that opposes pain
Were the one mortal feeling left. It passed:
Griefless and strong she waited like the gods.

अब सावित्री के अन्तर में सकल दुःख और भय मर चुके थे
और एक गम्भीर शान्ति उस पर छायी थी। उसके दुःख-कष्ट दूर करने की
कामना थी, पीड़ा का विरोध करती एक अन्तर्प्रेरणा थी
बस यही एक मानवीय भावना शेष थी। यह भी चली गयी:
शोकातीत और शक्तिशालिनी वह देवताओं समान प्रतीक्षारत थी।

But now his sweet familiar hue was changed
Into a tarnished greyness and his eyes
Dimmed over, forsaken of the clear light she loved.

किन्तु अब सत्यवान् की सौम्य परिचित आभा बदलने लगी
उस पर एक बदरंग धूसरता और उसके नेत्रों में धूमिलता छा गयी।
उसकी प्रिय वह स्पष्ट ज्योति उसके नेत्रों को त्याग गयी।

Only the dull and physical mind was left,
Vacant of the bright spirit’s luminous gaze.

केवल शिथिल शरीर और भौतिक मन वहां रह गया था,
जो दीप्तिमयी आत्मा की उज्ज्वल दृष्टि से विहीन था।

But once before it faded wholly back,[564]
He cried out in a clinging last despair,
“Savitri, Savitri, O Savitri,
Lean down, my soul, and kiss me while I die.”

किन्तु एक बार पूरी तरह बुझने से पहले जीव लौट आया,
अन्तिम निराशा में एक आशा रख वह चिल्लाया,
‘‘सावित्री, सावित्री, ओ सावित्री, मेरी आत्मा,
मुझ पर नीचे झुक जा और मुझे चूम जब मेरा प्राण शरीर त्यागे।’’

And even as her pallid lips pressed his,
His failed, losing last sweetness of response;
His cheek pressed down her golden arm. She sought
His mouth still with her living mouth, as if
She could persuade his soul back with her kiss;
Then grew aware they were no more alone.

और ज्यों ही उसके विवर्ण अधरों ने उसके ओष्ठ दबाये
वह अन्तिम मधुर प्रत्युत्तर असफल रहा, कुछ भी शेष नहीं रहा;
सावित्री की स्वर्णिम भुजा पर उसका शीश लुढ़क गया।
फिर भी उसने निज जीवित अधरों से उसके मुख को धरे रखा,
मानों अपने चुम्बन से वह उसके जीव को लौटने हित बाध्य कर सकती हो;
तभी उसे भान हुआ कि वे अब वहां अकेले नहीं थे।

Something had come there conscious, vast and dire.

कुछ वहां पर था जो सचेत, विशाल और भयंकर था।

Near her she felt a silent shade immense
Chilling the noon with darkness for its back.

अपने समीप उसे एक नीरव भीषण प्रेत-छाया का अनुभव हुआ
जिसने अपनी अन्धकार रूपी पीठ से दोपहर को ठिठुरा दिया।

An awful hush had fallen upon the place:
There was no cry of birds, no voice of beasts.

उस स्थान पर एक विकट सन्नाटा-सा छा गया:
पशु और पक्षियों की कोई ध्वनि नहीं थी सब मूक था।

A terror and an anguish filled the world,
As if annihilation’s mystery
Had taken a sensible form. A cosmic mind
Looked out on all from formidable eyes
Contemning all with its unbearable gaze
And with immortal lips and a vast brow
It saw in its immense destroying thought
All things and beings as a pitiful dream,
Rejecting with calm disdain Nature’s delight,
The wordless meaning of its deep regard
Voicing the unreality of things
And life that would be for ever but never was
And its brief and vain recurrence without cease,
As if from a Silence without form or name
The Shadow of a remote uncaring god
Doomed to his Nought the illusory universe,
Cancelling its show of idea and act in Time
And its imitation of eternity.

एक आतंक और एक संताप संसार पर व्याप्त था,
जैसे कि एक प्रलय के सर्वनाशी रहस्य ने
एक प्रकट आकार धर लिया हो। एक वैश्विक मानस अपने
भीषण घोर नेत्रों से समष्टि का निरीक्षण करता हो
अपनी असह्य चितवन से सबका तिरस्कार कर रहा हो,
और एक विशाल भाल और वक्र अमर अधरों की स्वामिनी
घोर छाया अपने सर्वव्यापक विनाशकारी विचार में
सकल पदार्थों और प्राणियों को एक दीन-हीन स्वप्न सम देखती,
शान्त तिरस्कार के साथ विश्व-प्रकृति के आनन्द का निषेध कर रही थी,
यह अपनी गम्भीर दृष्टि का शब्दहीन अर्थ
पदार्थों की अयथार्थता में मुखरित करती,
कि जीवन जो सतत व्यक्त होता रहा वह शून्य है
और इसका क्षणिक अविराम होता पुनरागमन व्यर्थ है,
यथा एक महा-नीरवशून्य से निकली यह निराकारी अनामी
घोर-छाया एक सुदूर के उदासीन देवता की थी
जिसने इस मायावी विश्व को अपने महाशून्य का दण्ड दिया है,
त्रिकाल में रचित इसके भाव और कर्म को रद्द करके
और इसकी शाश्वतता का नकली रूप मिटा दिया है।

She knew that visible Death was standing there
And Satyavan had passed from her embrace.[565]

सावित्री जान गयी कि साक्षात यम देवता वहां खड़ा था
और सत्यवान् उसके आलिंगन से निकल चुका था।

END OF CANTO THREE, BOOK EIGHT
END OF PART TWO