Sri Aurobindo wrote this piece as a letter to Punamchand Shah on 19 August 1927. Full text is below.
CHAPTER 5
यदि तुम भागवत कर्म के सच्चे कर्मी बनना चाहते हो तो तुम्हारा पहला लक्ष्य यही होना चाहिये कि तुम वासना मात्र से, तथा अपने-आपको ही सर्वस्व माननेवाले अहंकार से सर्वथा विनिर्मुक्त हो जाओ। तुम्हारा समस्त जीवन भगवान् के प्रति पुष्पाञ्जलि और यज्ञाहुति हो; कर्म में तुम्हारा एकमात्र लक्ष्य हो भागवती शक्ति की लीला में उनकी सेवा करना, उन्हें धारण करना, कृतार्थ करना और उनके प्राकट्य का यंत्र बनना। तुम्हें भागवत चैतन्य से चैतन्य होना होगा, यहांतक कि तुम्हारी इच्छा और भगवती की इच्छा में कोई भेद न रह जाये, तुम्हारे अंदर उनकी प्रेरणा के अतिरिक्त और कोई संकल्प ही न उठे, कोई कर्म ऐसा न हो जो तुम्हारे अंदर और तुम्हारे द्वारा होनेवाला उन्हींका चिन्मय कर्म न हो।
जबतक तुम इस संपूर्ण सक्रिय अभेद के अधिकारी न हो सको तबतक तुम्हें अपने-आपको माता की सेवा के लिये सृष्ट वह जीव और देह समझना चाहिये जो माता के लिये ही सब कर्म करता है। पृथक् कर्तृत्वबोध यदि तुम्हारे अंदर प्रबल भी हो और तुम यह अनुभव करो कि कर्म करनेवाला कर्ता तो मैं ही हूं तो भी कर्म करो माता के लिये ही। अहंकार की पसंद का सारा जोर, वैयक्तिक लाभ की सारी लोलुपता, स्वार्थैकदृष्टिवाली कामना का सारा निबन्धन इन सबको मिटा देना होगा प्रकृति में से। कोई फलेच्छा न रह जाये, पुरस्कार पाने की कोई कामना प्रवेश न करे; एकमात्र फल तुम्हारे लिये हो मां भगवती की प्रसन्नता और उनके कर्म की सांग सम्पन्नता, एकमात्र पुरस्कार तुम्हारे लिये हो भागवत चैतन्य और शांति और सामर्थ्य और आनंद की तुम्हारे अंदर निरंतर वृद्धि। सेवा का आनंद और कर्म के द्वारा आंतरिक विकास का आनंद ही निरहंकार कर्मी के लिये यथेष्ट प्रतिफल है।
पर एक समय आयेगा जब तुम अधिकाधिक यह अनुभव करोगे कि तुम केवल यंत्र हो, कर्मी नहीं। कारण पहले तो तुम्हारे भक्तिबल से भगवती माता के साथ तुम्हारा संबंध इतना घनिष्ठ हो जायेगा कि जब चाहे उनका ध्यान एकाग्र करते ही और सब कुछ उनके हाथों में सौंपते ही तुम्हें उनका सद्यःनिर्देश, प्रत्यक्ष आदेश या प्रेरक भावविशेष प्राप्त होगा, इस बात का अति स्पष्ट संकेत मिलेगा कि तुम्हें क्या करना चाहिये, किस तरह करना चाहिये और उसका क्या फल होगा। और फिर इसके बाद तुम यह अनुभव करोगे कि भगवत्-शक्ति केवल प्रेरणा और आदेश-निर्देश ही नहीं करती बल्कि तुम्हारे कर्मों का प्रवर्त्तन और उद्यापन भी वे ही करती हैं; तुम्हारी सारी वृत्तियां और गतियां उन्हींसे निकलती हैं, तुम्हारी सारी शक्तियां उन्हींकी हैं, तुम्हारे मन, प्राण, शरीर उन्हींके कर्म के सचेत सानन्द यंत्र हैं, उनकी लीला के उपकरण हैं, स्थूल जगत् में उनके प्राकट्य के पात्र हैं। ऐसी एकता और निर्भरता की अपेक्षा अधिक सुखद स्थिति और कोई नहीं हो सकती; इसमें प्रवेश होने पर तुम अज्ञान के संघर्ष-संकुल दुःखमय जीवन की सीमा पार कर फिर से अपनी आत्मसत्ता के सत्य में, उसकी गंभीर शांति और प्रगाढ़ आनंद में आ जाओगे।
जब कि तुम्हारे अंदर इस प्रकार रूपांतर-साधन हो रहा है तब यह बहुत ही आवश्यक है कि तुम अपने-आपको अहंकार के समस्त विकृति-दोषों से विनिर्मुक्त रखो। कोई मांग, कोई हठ लुका-छिपा तुम्हारे अंदर घुसकर तुम्हारे आत्मदान और आत्मोत्सर्ग की निर्मलता को कलंकित न करे। कर्म में या कर्मफल में कोई आसक्ति न हो, अपनी कोई शर्त न हो, जिस भगवत्-शक्ति से अधिकृत होकर रहना इष्ट है उस पर अपने अधिकार का दावा न हो, तुम भगवती के यंत्र हो इस बात का भी कोई घमण्ड न हो, किसी प्रकार की दाम्भिकता या उद्धतता न हो। मन, प्राण या देह के किसी अंग-प्रत्यंग में कोई ऐसी बात न रहे जो तुम्हारे अंदर कर्म करनेवाली महती शक्तियों की उस महत्ता को अपने काम में प्रयुक्त कर विकृत कर दे या अपनी ही व्यष्टिगत पृथक् संतुष्टि के साधन में लगा दे। तुम्हारी श्रद्धा, निष्ठा और विमल अभीप्सा अनन्यगतिक और तुम्हारी सत्ता के सब स्तरों और क्षेत्रों में व्यापक हो; जब ऐसा होगा तब सब प्रकार के क्षोभ और विकार उत्पन्न करनेवाली सब वृत्तियां-प्रवृत्तियां प्रकृति से क्रमशः झड़ जायेंगी।
इस सिद्धि की चरम अवस्था तब होगी जब तुम भगवती माता के साथ पूर्णतया एकीभूत हो जाओगे और अपने आपको कोई पृथक् सत्ता, यंत्र, सेवक या कर्मी न जानोगे बल्कि यह अनुभव करोगे कि तुम सचुमच ही माता के शिशु हो, उन्हींकी चेतना और शक्ति के सनातन अंश हो। सदा ही वे तुम्हारे अंदर रहेंगी और तुम उनके अंदर; तुम्हारी यह सतत, सहज, स्वाभाविक अनुभूति होगी कि तुम्हारा सब सोचना-समझना, देखना-सुनना और कर्म करना, तुम्हारा श्वास-प्रश्वास और तुम्हारे अंग-प्रत्यंग का हिलना-डोलना भी उन्हींसे होता है, वे ही करती हैं। तुम यह जानोगे, देखोगे और अनुभव करोगे कि उन्होंने ही तुम्हें एक व्यक्ति और शक्ति के रूप में अपने अंश से निर्मित किया है, अपने अंदर से लीला के हेतु बाहर प्रकट किया है और फिर भी सदा ही तुम उन्हींके अंदर सुरक्षित हो, उन्हींकी सत्ता से सत् हो, उन्हींके चैतन्य से चित् हो, उन्हींके आनंद से आनंद हो। यह स्थिति जब पूर्ण होगी और उनकी विज्ञान-तेजोराशि तुम्हारा अबाध परिचालन कर सकेगी तब तुम भागवत कर्म के सिद्ध कर्मी बनोगे; ज्ञान, संकल्प, कर्म तब सिद्ध, सहज, ज्योतिर्मय, स्वतःस्फूर्त, निर्दोष होंगे, भगवान् से ही उनका प्रवाह निःसृत होगा, सनातन का ही वह दिव्य शाश्वत कर्म होगा।
About Savitri | B1C3-04 The Growth of Divinity in Man (pp.25-26)